Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः कर्मभूमि


भाग 7

लाला समरकान्त के चले जाने के बाद सलीम ने हर एक गांव का दौरा करके असामियों की आर्थिक दशा की जांच करनी शुरू की। अब उसे मालूम हुआ कि उनकी दशा उससे कहीं हीन है, जितनी वह समझे बैठा था। पैदावर का मूल्य लागत और लगान से कहीं कम था। खाने-कपड़े की भी गुंजाइश न थी, दूसरे खर्चों का क्या जिक्र- ऐसा कोई बिरला ही किसान था, जिसका सिर के नीचे न दबा हो। कॉलेज में उसने अर्थशास्त्र अवश्य पढ़ा था और जानता था कि यहां के किसानों की हालत खराब है, पर अब ज्ञात हुआ है कि पुस्तक-ज्ञान और प्रत्येक्ष व्यवहार में वही अंतर है, जो किसी मनुष्य और उसके चित्र में है। ज्यों-ज्यों असली हालत मालूम होती जाती थी उसे असामियों से सहानुभूति होती जाती थी। कितना अन्याय है कि जो बेचारे रोटियों को मुंहताज हों, जिनके पास तन ढकने को केवल चीथड़े हों, जो बीमारी में एक पैसे की दवा भी न कर सकते हों। जिनके घरों में दीपक भी न जलते हों, उनसे पूरा लगान वसूल किया जाए। जब जिंस मंहगी थी, तब किसी तरह एक जून रोटियां मिल जाती थीं। इस मंदी में तो उनकी दशा वर्णनातीत हो गई है। जिनके लड़के पांच-छ: बरस की उम्र से मेहनत-मजूरी करने लगे, जो ईंधन के लिए हार में गोबर चुनते फिरें, उनसे पूरा लगान वसूल करना, मानो उनके मुंह से रोटी का टुकड़ा छीन लेना है, उनकी रक्त-हीन देह से खून चूसना है।

परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान होते ही सलीम ने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उन आदमियों में न था, जो स्वार्थ के लिए अफसरों के हर एक हुक्म की पाबंदी करते हैं। वह नौकरी करते हुए भी आत्मा की रक्षा करना चाहता था। कई दिन एकांत में बैठकर उसने विस्तार के साथ अपनी रिपोर्ट लिखी और मि. गजनवी के पास भेज दी। मि. गजनवी ने उसे तुरंत लिखा-आकर मुझसे मिल जाओ। सलीम उनसे मिलना न चाहता था। डरता था, कहीं यह मेरी रिपोर्ट को दबाने का प्रस्ताव न करें, लेकिन फिर सोचा-चलने में हर्ज ही क्या है- अगर मुझे कायल कर दें, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अफसरों के भय से मैं अपनी रिपोर्ट को कभी न दबने दूंगा। उसी दिन वह संध्याद समय सदर पहुंचा।
मि. गजनवी ने तपाक से हाथ बढ़ाते हुए कहा-मि. अमरकान्त के साथ तो तुमने दोस्ती का हक खूब अदा किया। वह खुद शायद इतनी मुफस्सिल रिपोर्ट न लिख सकते लेकिन तुम क्या समझते हो, सरकार को यह बातें मालूम नहीं-
सलीम ने कहा-मेरा तो ऐसा ही खयाल है। उसे जो रिपोर्ट मिलती है, वह खुशामदी अहलकारों से मिलती है, जो रिआया का खून करके भी सरकार का घर भरना चाहते हैं। मेरी रिपोर्ट वाकयात पर लिखी गई है।
दोनों अफसरों में बहस होने लगी। गजनवी कहता था-हमारा काम केवल अफसरों की आज्ञा मानना है। उन्होंने लगान वसूल करने की आज्ञा दी। हमें लगान वसूल करना चाहिए। प्रजा को कष्ट होता है तो हो, हमें इससे प्रयोजन नहीं। हमें खुद अपनी आमदनी का टैक्स देने में कष्ट होता है लेकिन मजबूर होकर देते हैं। कोई आदमी खुशी से टैक्स नहीं देता।
गजनवी इस आज्ञा का विरोध करना अनीति ही नहीं, अधर्म समझता था। केवल जाब्ते की पाबंदी से उसे संतोष न हो सकता था। वह इस हुक्म की तामील करने के लिए सब कुछ करने को तैयार था। सलीम का कहना था-हम सरकार के नौकर केवल इसलिए हैं कि प्रजा की सेवा कर सकें, उसे सुदशा की ओर ले जा सकें, उसकी उन्नति में सहायक हो सकें। यदि सरकार की किसी आज्ञा से इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा पड़ती है, तो हमें उस आज्ञा को कदापि न मानना चाहिए।
गजनवी ने मुंह लंबा करके कहा-मुझे खौफ है कि गवर्नमेंट तुम्हारा यहां से तबादला कर देगी।
'तबादला कर दे इसकी मुझे परवाह नहीं लेकिन मेरी रिपोर्ट पर गौर करने का वादा करे। अगर वह मुझे यहां से हटा कर मेरी रिपोर्ट को दाखिल दफ्तर करना चाहेगी, तो मैं इस्तीफा दे दूंगा।'
गजनवी ने विस्मय से उसके मुंह की ओर देखा।
'आप गवर्नमेंट की दिक्कतों का मुतलक अंदाजा नहीं कर रहे हैं। अगर वह इतनी आसानी से दबने लगे, तो आप समझते हैं, रिआया कितनी शेर हो जाएगी जरा-जरा-सी बात पर तूफान खड़े हो जाएंगे। और यह महज इस इलाके का मुआमला नहीं है, सारे मुल्क में यही तहरीक जारी है। अगर सरकार अस्सी फीसदी काश्तकारों के साथ रिआयत करे, तो उसके लिए मुल्क का इंतजाम करना दुश्वार हो जाएगा।'
सलीम ने प्रश्न किया-गवर्नमेंट रिआया के लिए है, रिआया गवर्नमेंट के लिए नहीं। काश्तकारों पर जुल्म करके, उन्हें भूखों मारकर अगर गवर्नमेंट जिंदा रहना चाहती है, तो कम-से-कम मैं अलग हो जाऊंगा। अगर मालियत में कमी आ रही है तो सरकार को अपना खर्च घटाना चाहिए, न कि रिआया पर सख्तियां की जाएं।
गजनवी ने बहुत ऊंच-नीच सुझाया लेकिन सलीम पर कोई असर न हुआ। उसे डंडों से लगान वसूल करना किसी तरह मंजूर न था। आखिर गजनवी ने मजबूर होकर उसकी रिपोर्ट ऊपर भेज दी, और एक ही सप्ताह के अंदर गवर्नमेंट ने उसे पृथक् कर दिया। ऐसे भयंकर विद्रोही पर वह कैसे विश्वास करती-
जिस दिन उसने नए अफसर को चार्ज दिया और इलाके से विदा होने लगा, उसके डेरे के चारों तरफ स्त्री-पुरुषों का एक मेला लग गया और सब उससे मिन्नतें करने लगे, आप इस दशा में हमें छोड़कर न जाएं। सलीम यही चाहता था। बाप के भय से घर न जा सकता था। फिर इन अनाथों से उसे स्नेह हो गया था। कुछ तो दया और कुछ अपने अपमान ने उसे उनका नेता बना दिया। वही अफसर जो कुछ दिन पहले अफसरी के मद से भरा हुआ आया था, जनता का सेवक बन बैठा। अत्याचार सहना अत्याचार करने से कहीं ज्यादा गौरव की बात मालूम हुई।
आंदोलन की बागडोर सलीम के हाथ में आते ही लोगों के हौसले बंध गए। जैसे पहले अमरकान्त आत्मानन्द के साथ गांव-गांव दौड़ा करता था, उसी तरह सलीम दौड़ने लगा। वही सलीम, जिसके खून के लोग प्यासे हो रहे थे, अब उस इलाके का मुकुटहीन राजा था। जनता उसके पसीने की जगह खून बहाने को तैयार थी।
संध्याक हो गई थी। सलीम और आत्मानन्द दिन-भर काम करने के बाद लौटे थे कि एकाएक नए बंगाली सिविलियन मि. घोष पुलिस कर्मचारियों के साथ आ पहुंचे और गांव भर के मवेशियों की कुर्क करने की घोषणा कर दी। कुछ कसाई पहले ही से बुला लिए गए थे। वे सस्ता सौदा खरीदने को तैयार थे। दम-के-दम में कांस्टेबलों ने मवेशियों को खोल-खोलकर मदरसे के द्वार पर जमा कर दिया। गूदड़, भोला, अलगू सभी चौधरी गिरफ्तार हो चुके थे। फसल की कुर्की तो पहले ही हो चुकी थी मगर फसल में अभी क्या रखा था- इसलिए अब अधिकारियों ने मवेशियों को कुर्क करने का निश्चय किया था। उन्हें विश्वास था कि किसान मवेशियों की कुर्की देखकर भयभीत हो जाएंगे, और चाहे उन्हें कर्ज लेना पड़े, या स्त्रियों के गहने बेचने पड़ें, वे जानवरों को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार होंगे। जानवर किसान के दाहिने हाथ हैं।
किसानों ने यह घोषणा सुनी, तो छक्के छूट गए। वे समझे बैठे थे कि सरकार और जो चाहे करे, पर मवेशियों को कुर्क न करेगी। क्या वह किसानों की जड़ खोदकर फेंक देगी।
यह घोषणा सुनकर भी वे यही समझ रहे थे कि यह केवल धमकी है लेकिन जब मवेशी मदरसे के सामने जमा कर दिए गए और कसाइयों ने उनकी देखभाल शुरू की तो सभी पर जैसे वज्राघात हो गया। अब समस्या उस सीमा तक पहुंची थी, जब रक्त का आदान-प्रदान आरंभ हो जाता है।
चिराग जलते-जलते जानवरों का बाजार लग गया। अधिकारियों ने इरादा किया है कि सारी रकम एकजाई वसूल करें। गांव वाले आपस में लड़-भिड़कर अपने-अपने लगान का फैसला कर लेंगे। इसकी अधिकारियों को कोई चिंता नहीं है।
सलीम ने आकर मि. घोष से कहा-आपको मालूम है कि मवेशियों को कुर्क करने का आपको मजाज नहीं है-
मि. घोष ने उग्र भाव से जवाब दिया-यह नीति ऐसे अवसरों के लिए नहीं है। विशेष अवसरों के लिए विशेष नीति होती है। क्रांति की नीति, शांति की नीति से भिन्न होनी स्वाभाविक है।
अभी सलीम ने कुछ उत्तर न दिया था कि मालूम हुआ, अहीरों के मुहाल में लाठी चल गई। मि. घोष उधर लपके। सिपाहियों ने भी संगीनें चढ़ाईं और उनके पीछे चले। काशी, पयाग, आत्मानन्द सब उसी तरफ दौड़े। केवल सलीम यहां खड़ा रहा। जब एकांत हो गया, तो उसने कसाइयों के सरगना के पास जाकर सलाम-अलेक किया और बोला-क्यों भाई साहब, आपको मालूम है, आप लोग इन मवेशियों को खरीदकर यहां की गरीब रिआया के साथ कितनी बड़ी बेइंसाफी कर रहे हैं-
सरगना का नाम तेगमुहम्मद था। नाटे कद का गठीला आदमी था, पूरा पहलवान। ढीला कुर्ता, चारखाने की तहमद, गले में चांदी की तावीज, हाथ में माटा सोंटा। नम्रता से बोला -साहब, मैं तो माल खरीदने आया हूं। मुझे इससे क्या मतलब कि माल किसका है और कैसा है- चार पैसे का फायदा जहां होता है वहां आदमी जाता ही है।
'लेकिन यह तो सोचिए कि मवेशियों की कुर्की किस सबब से हो रही है- रिआया के साथ आपको हमदर्दी होनी चाहिए।'
तेगमुहम्मद पर कोई प्रभाव न हुआ-सरकार से जिसकी लड़ाई होगी, उसकी होगी। हमारी कोई लड़ाई नहीं है।
'तुम मुसलमान होकर ऐसी बातें करते हो, इसका मुझे अफसोस है। इस्लाम ने हमेशा मजलूमों की मदद की है। और तुम मजलूमों की गर्दन पर छुरी फेर रहे हो॥'
'जब सरकार हमारी परवरिस कर रही है, तो हम उनके बदखाह नहीं बन सकते।'
'अगर सरकार तुम्हारी जायदाद छीनकर किसी गैर को दे दे, तो तुम्हें बुरा लगेगा, या नहीं?'
'सरकार से लड़ना हमारे मजहब के खिलाफ है।'
'यह क्यों नहीं कहते तुममें गैरत नहीं है?'
'आप तो मुसलमान हैं। क्या आपका फर्ज नहीं है कि बादशाह की मदद करें?'
'अगर मुसलमान होने का यह मतलब है कि गरीबों का खून किया जाए, तो मैं काफिर हूं।'

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